इस जगत में, इस जीवन में छोड़ने के लिए जो जितना राजी है, उतना ही उसे मिलता है। पैराडाक्सिकल है। लेकिन जीवन के सभी नियम पैराडाक्सिकल हैं। जीवन के सभी नियम बड़े विरोधाभासी हैं। विरोधी नहीं हैं, विरोधाभासी हैं। दिखाई पड़ते हैं कि विपरीत हैं। यहां जिस आदमी ने चाहा कि सम्मान मिले, उसे अपमान सुनिश्चित है। जिस आदमी ने चाहा कि मैं धनी हो जाऊं, जितना धन मिलता जाता है, वह आदमी भीतर उतना ही निर्धन होता चला जाता है। जिस आदमी ने सोचा कि मैं कभी न मरूं, वह चौबीस घंटे मौत में घिरा रहता है। मौत का भय पकड़े रहता है। जिस आदमी ने कहा कि हम अभी मरने को राजी हैं, उसके दरवाजे पर मौत कभी नहीं आती। जो मरने को राजी हुआ, उसे अमृत का पता चल जाता है। और जो मौत से भयभीत हुआ, वह चौबीस घंटे मरता है। वह मरता ही है, जीने का उसे पता ही नहीं चलता। जिसने भी कहा कि मैं मालिक बनूंगा, वह गुलाम बन जाता है। और जिसने कहा कि हम गुलाम होने को भी राजी हैं, उसकी मालकियत का कोई हिसाब नहीं।
मगर ये उलटी बातें हैं। और इसलिए बड़ी कठिन हो जाती हैं। और इनके अर्थ जब हम निकालते हैं, तो हम आमतौर से जो अर्थ निकाल लेते हैं-वह इस विरोधाभास को बचाने के लिए जो हम अर्थ निकालते हैं-वे गलत होते हैं। इसका भी वैसा ही अर्थ लोगों ने निकाला है। लोगों ने निकाला-तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः-तो निकाला कि दान करो तो स्वर्ग में मिलेगा। गंगा के तट पर एक पैसा दो तो एक करोड़ गुना मोक्ष में मिलने वाला है! असल में महावाक्यों की जितनी दुर्दशा होती है जगत में, उतनी और किसी चीज की नहीं होती। और ऋषियों के साथ जितना अन्याय होता है, उतना किसी और के साथ नहीं होता। क्योंकि उन्हें समझना कठिन हो जाता है। हम उनसे जो अर्थ निकालते हैं, वे अर्थ हमारे होते हैं। हमने सोचा कि यह बात बिलकुल ठीक है। कुछ दान करोगे तो परलोक में पाओगे। लेकिन पाने के लिए करना दान। दान करना पाने के लिए।
और ध्यान रखना, सूत्र कहता है कि जो छोड़ता है, उसे मिलता है; लेकिन जो मिलने के लिए छोड़ता है, उसको मिलता है, ऐसा नहीं कहता है। जो मिलने के लिए ही छोड़ता है, वह तो छोड़ता ही नहीं। वह तो सिर्फ मिलने का इंतजार कर रहा है। जो आदमी कहता है कि मैं दान कर रहा हूं यहां, ताकि मुझे स्वर्ग में मिल जाए, वह छोड़ ही नहीं रहा। वह सिर्फ मुट्ठी आगे तक कस रहा है। अगर ठीक से समझें, तो वह इस लोक में ही कस नहीं रहा है मुट्ठी, परलोक में भी मुट्ठी कस रहा है। वह कह रहा है कि यहां तो ठीक, वहां भी! वहां भी हम छोड़ेंगे नहीं। वहां भी चाहिए। और अगर वहां मिलने का कोई पक्का भरोसा होता हो, तो हम यहां कुछ इनवेस्टमेंट, कुछ इनवेस्टमेंट कर सकते हैं। हम कुछ लगा सकते हैं पूंजी यहां, अगर परलोक में कुछ मिलने का पक्का हो।
नहीं, वह समझा ही नहीं। यह सूत्र यह नहीं कहता। यह सूत्र तो यह कहता है, जो छोड़ता है, उसे मिलता है। यह यह नहीं कहता कि तुम इसलिए छोड़ना ताकि तुम्हें मिले। क्योंकि मिलने की जिसकी दृष्टि है, वह तो छोड़ ही नहीं सकता। वह तो सिर्फ इनवेस्ट करता है, वह छोड़ता कभी नहीं। वह तो सिर्फ पूंजी नियोजित करता है ताकि और मिल जाए।
एक आदमी एक लाख रुपया कारखाने में लगाता है, तो दान कर रहा है? नहीं। वह डेढ़ लाख मिल सकेगा इसलिए लगा रहा है। फिर वह डेढ़ लाख भी लगा देता है, तो दान कर रहा है? वह तीन लाख मिल सके इसलिए लगा रहा है। वह लगाए चला जाता है, वह लगाए चला जाता है, इसलिए कि मुट्ठी को और कसना है। और पकड़ लेना है। जो आदमी भी दान करता है पाने के लिए, उसने दान के राज को नहीं समझा। वह दान का खयाल ही उसको पता नहीं चला कि क्या है।